दुनिया इस वक्त जलवायु संकट के जिस दौर से गुजर रही है, वह आने वाले वक्त के बड़े खतरे का संकेत है। यह खतरा पूरी धरती के लिए है। जीवन, वनस्पति, खेती, जंगल, पहाड़, समुद्र सब इसकी चपेट में हैं। लेकिन यह संकट कोई एक दिन या कुछ सालों में नहीं उपजा है। यह प्राकृतिक चक्र का अभिन्न हिस्सा है। धरती की उत्पत्ति से लेकर आज तक परिवर्तन का यह चक्र अनवरत चल रहा है। लेकिन यह मामला तब ज्यादा गंभीर हुआ जब धरती पर विकास की गाड़ी दौड़ने लगी और इसकी अंधी दौड़ ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया। अब हालत यह है कि दुनिया के ज्यादातर देश जलवायु संकट से जूझ रहे हैं। इससे बचने के हर संभावित रास्ते तलाश रहे हैं। दुनिया के बड़े और विकसित देश होने का दावा करने वाले विकासशील देशों पर हवा-पानी खराब करने की तोहमत मढ़ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र सहित दुनिया की तमाम बड़ी एजेंसियां, संस्थान, विश्वविद्यालय, पर्यावरणविद- सब इस समस्या से जूझ रहे हैं कि जलवायु संकट से कैसे निपटा जाए। वरना खेती और जल संसाधनों पर जिस तरह असर पड़ रहा है उससे लोगों के भूखों मरने की नौबत आने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
दरअसल, भारत सरकार ने राज्यसभा में इस खतरे के बारे में इशारा किया है। सरकार ने माना है कि जलवायु में जिस तरह के बदलाव हो रहे हैं, उनका सीधा असर खेती पर पड़ सकता है। जंगल और जैव विविधता भी इससे अछूते नहीं रह पाएंगे। जो कुछ भी हो, हमारी पहली चिंता खाने को लेकर है। अगर खेती का चक्र बिगड़ गया और पैदावार प्रभावित होने लगी तो खाद्य संकट खड़ा हो सकता है। भारत के संदर्भ में अगले दशक में जलवायु संकट के प्रभाव को लेकर यह अध्ययन सरकार ने ही कराया है। इसलिए इसकी महत्ता और बढ़ जाती है। कहने को वैश्विक एजेंसियां और संस्थान भी ऐसे अध्ययन कराते रहते हैं और आगाह करते हैं। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि भारत में हिमालयी, पश्चिमी घाट, तटीय इलाकों और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जो बदलाव आएंगे, उनका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ेगा। पैदावार प्रभावित होगी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भी फसलों पर जलवायु के प्रभाव का जो विश्लेषण किया है, उसमें सामने आया है कि मक्का, गेहूं और धान की पैदावार में कमी आ सकती है। यह वैज्ञानिक विधियों से किया गया तथ्यों पर आधारित अध्ययन है, इसलिए इसकी चेतावनियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
ऐसे में सवाल उठता है कि भविष्य के इस तरह के संकटों से निपटने के लिए हम कितने तैयार हैं। अगर आज ये संकेत मिल रहे हैं कि अगले दशक में हमारी खेती पर संकट आने वाला है, खासतौर से गेहूं और धान जैसी फसलों की पैदावार कम होने लगेगी, तो जाहिर है एक गंभीर खाद्य संकट दस्तक दे रहा है! इसलिए ऐसी दूरगामी हितों वाली नीतियां और कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए जो कृषि क्षेत्र की इन समस्याओं से निपट सकें। फसलों की ऐसी किस्में विकसित की जाएं, जिन पर जलवायु संकट का प्रभाव न्यूनतम हो और पैदावार भी ज्यादा मिल सके। हालांकि एक दशक पहले राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना शुरू की गई थी, ताकि कृषि, सौर ऊर्जा, जल, वानिकी जैसे क्षेत्रों में जलवायु संकट के प्रभावों से निपटा जा सके। भारत एक कृषि प्रधान देश है और आबादी का बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। अर्थव्यवस्था में भी कृषि की बड़ी भूमिका है। इसलिए समय रहते कृषि क्षेत्र को जलवायु संकट से बचाना प्राथमिकता होनी चाहिए।