अरशद खान
दो रजी एक पहाड़ी पर रहता था। वह अकेला था। बचपन में हुई एक दुर्घटना में उसने अपना एक पैर गंवा दिया था। इसलिए कहीं आने-जाने में उसे बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। वह अपने खेतों में साग-सब्जियां उगा कर गुजारा करता था। उसकी झोपड़ी के ठीक सामने एक बड़ी-सी चट्टान पड़ी थी, जिसकी वजह से उसे अपने खेतों तक घूम कर जाना पड़ता था। इसमें उसका काफी समय बर्बाद होता था। वह अक्सर सोचता कि यह चट्टान न होती तो वह झोपड़ी में बैठे-बैठे अपने खेतों की निगरानी कर सकता था। पर उसे हटा पाना उसके वश की बात नहीं थी।
एक दिन दोरजी ने पानी भरे बादल से कहा, ‘बादल, ओ बादल, क्या तुम मेरी मदद कर सकते हो?’
‘कैसी मदद?’ बादल ने पूछा।
‘तुम अपनी ताकत से बड़ी-बड़ी चीजें बहा ले जाते हो। बिजली गिरा कर बड़े-बड़े पहाड़ों को चकनाचूर कर सकते हो। क्या तुम यह अदना-सी चट्टान बहा कर घाटी में नहीं फेंक सकते?’
बादल हंस पड़ा। उसके हंसने पर ऐसी गर्जना हुई कि पहाड़ियां कांप उठीं। उसने कहा, ‘मैं तुम्हारी झोपड़ी को बहा सकता हूं। तुम्हारे खेतों को भी तहस-नहस कर सकता हूं। पर इस चट्टान को बहा पाना मेरे वश की बात नहीं।’
दोरजी निराश नहीं हुआ। उसने हवा को रोका- ‘हवा, ओ हवा, क्या तुम मेरी मदद कर सकती हो?’
‘कैसी मदद?’ बड़े-बड़े पेड़ों को झुकाती जा रही हवा एकाएक ठहर कर बोली।
‘तुम अपनी ताकत से धरती की गहराई में गड़े पेड़ों को उखाड़ देती हो, बड़ी-बड़ी चीजों को तिनके की तरह फूंक मार कर उड़ा सकती हो। क्या तुम इस चट्टान को उड़ा कर घाटी में नहीं फेंक सकती?’
हवा जोर से हंस पड़ी। उसके हंसने से ऐसा बवंडर उठा कि आसपास के पेड़-पौधे बेचैन हो उठे। उसने कहा, ‘मैं अपनी ताकत से तुम्हारी झोपड़ी को उड़ा सकती हूं, तुम्हारे खेतों के एक-एक पौधे को बर्बाद कर सकती हूं। पर इस चट्टान को उड़ा पाना मेरे वश का नहीं है।’
अबकी बार दोरजी ने सूरज से कहा, ‘सूरज, ओ सूरज, क्या तुम मेरी मदद कर सकते हो?’
‘कैसी मदद?’ सूरज ने कहा।
‘तुम्हारे भीतर आग भरी हुई है। इस आग से तुम सब कुछ खाक कर सकते हो। क्या तुम यह अदना-सी चट्टान अपने ताप से नहीं पिघला सकते?’
सूरज हंसा, तो आग ऐसा लपलपाई कि आसपास उड़ रहे पक्षियों के पंख झुलस गए। उसने कहा, ‘प्यारे, मैं अपनी आग से तुम्हारी झोंपड़ी तो जला सकता हूं। तुम्हारे खेतों को बंजर बना सकता हूं। पर इस चट्टान को पिघला पाना मेरे वश का नहीं।’
दोरजी आखिरी उम्मीद लेकर धरती से बोला, ‘धरती, ओ धरती, क्या तुम मेरी मदद कर सकती हो?’
‘कैसी मदद?’ धरती ने अलसा कर पूछा।
‘तुम्हें जब गुस्सा आता है तो बड़े-बड़े महलों को अपने भीतर समो लेती हो। ऊंची-ऊंची मीनारें धूल में लोट जाती हैं। क्या तुम इस अदना-सी चट्टान को अपने भीतर नहीं समो सकती?’
धरती शांत रही। कुछ सोचने के बाद उसने कहा, ‘देखो, मैं अपने क्रोध से तुम्हारी झोपड़ी तो गर्क कर सकती हूं। खेतों को निगल कर तालाब बना सकती हूं। पर इस चट्टान को हटा पाना मेरे वश का नहीं।’
हर कहीं से नाउम्मीद हो जाने के बाद भी दोरजी निराश नहीं हुआ। बल्कि उसे अंदर ही अंदर गुस्सा आ रहा था। वह थोड़ी देर तक बैठा सोचता रहा। उसके नथुने फड़कते रहे और माथे पर लकीरें उभरती रहीं। फिर एकाएक वह उठ खड़ा हुआ। उसने अपनी बैसाखी एक ओर फेंकी और चट्टान को पूरी ताकत लगा कर धकेलने लगा। उसका चेहरा लाल हो गया। बाहों की मछलियां फूल उठीं, पिंडलियों की नसें पुराने पेड़ की जड़ों-सी उभर आर्इं।
सूरज अपनी पूरी आग के साथ दहक रहा था, हवा थपेड़े मार कर बह रही थी, दूर कहीं बादल का टुकड़ा मंडरा रहा था। पर दोरजी इन सबसे बेखबर धरती पर पैर जमाए चट्टान को धकेल रहा था।
दोरजी का साहस देख कर सूरज डर गया। उसने दोरजी की मदद के लिए अपना ताप बढ़ा दिया। उसके ताप से हवाएं गरम होकर थपेड़े मारने लगीं। हवाएं चलीं तो बादल भी खिंचे चले आए। बादलों ने झमाझम बारिश शुरू कर दी। सबको देख कर धरती ने भी मदद करने की ठानी। वह थोड़ा-सा कसमसाई। नीचे की जमीन धसकते ही चट्टान डगमगा उठी।
अचानक चट्टान अपनी जगह से खिसकी। दोरजी ने और ताकत लगाई। इस बार चट्टान और ज्यादा खिसकी और असंतुलित होकर घाटी में लुढ़क चली। टूट-टूट कर उसके टुकड़े बिखरने लगे। नीचे तक पहुंचते-पहुंचते वह विशाल चट्टान रेत में तब्दील हो गई।

